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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 24 
दानवों की शक्ति बहुत बढ गई थी । राहू जैसे दानव आए दिन कोई न कोई उपद्रव करते रहते थे । सूर्य देव और चंद्र देव अक्सर राहू से पीड़ित हुआ करते थे । जब देखो तब राहू काल बनकर उन पर टूट पड़ता था । सूर्य देव और चंद्र देव उससे कन्नी काटकर निकलना चाहते थे लेकिन राहू इतनी आसानी से उन्हें जाने देना नहीं चाहता था । वह दांत कटकटाकर उन्हें चुनौती देता और कहता "कायरो, हिम्मत है तो मुझसे युद्ध करो । यूं नपुंसकों की तरह भाग क्यों रहे हो" ? वह खम ठोक कर कहता । 

सूर्य देव और चंद्र देव को देवराज ने कड़े निर्देश दे रखे थे कि वे दानवों से अनावश्यक नहीं उलझें इसलिए सूर्य देव और चंद्र देव न चाहते हुए भी अपमान का घूंट पीकर रह जाते थे । आज तो राहू और अन्य दैत्यों ने समस्त सीमाऐं लांघ दी थीं । उसने उपस्थित समस्त दैत्यों से कहा कि वे सूर्य और चंद्र देव के समस्त वस्त्र विदीर्ण कर इन्हें नग्न कर दें । दैत्यों ने दोनों को घेरकर इतना मारा कि उनके बस प्राण ही नहीं निकले । उनके वस्त्र विदीर्ण कर डाले । मुंह पर कालिख पोत डाली और जूतों की माला गले में डाल दी । सूर्य देव और चंद्र देव इस घटना से इतने अप्रसन्न हुए कि उन्होंने आत्मदाह करने का विचार कर लिया । इतने में नारद जी आ गये और उन्होंने उन दोनों को समझाया कि आत्मदाह करना शूरवीरों का नहीं अपितु कापुरुषों का कृत्य है । सूर्य और चंद्र देव का कितना उज्जवल इतिहास है । आत्मदाह करके उस पर कालिमा नहीं लगानी चाहिए । देवराज इंद्र से कहकर इस समस्या का कोई समाधान निकाला जाना चाहिए । 

सूर्य और चंद्र देव को नारद जी की बात अच्छी लगी और वे दोनों उसी अवस्था में इन्द्र की सभा में चले गये । उन्हें उस अवस्था में देखकर देवराज बहुत कुपित हुए और गरज कर कहने लगे 
"ये क्या अशिष्टता है सूर्य देव और चंद्र देव ? आप लोगों को ज्ञात नहीं है कि सभा में कैसे आया जाता है ? और चंद्र देव, आप तो शीतलता के समुद्र हैं । आप भी सूर्य देव के साथ रह रहकर इनके जैसे हो गये हैं क्या" ? देवराज के मुंह से ज्वाला निकल रही थी । 
"क्षमा देवराज, क्षमा । हम इस विचित्र पोशाक में जानबूझकर नहीं आये हैं । हमारी यह दशा दानवों ने की है । राहू जब देखो तब हमारी ऐसी ही दुर्गति करता रहता है । आपने हमें आदेश दे रखा है कि कोई भी देवता ऐसा कोई कृत्य नहीं करेगा जिससे दानवों को क्रोध करने का अवसर प्राप्त हो । आप ही बताऐं देवराज कि हम इन राक्षसों के अत्याचार कब तक सहें ? आज भी उस दुष्ट राहू और उसके अनुचरों ने हमारा यह हाल कर दिया है जो आपके सम्मुख है । हमें उन्होंने न केवल मारा अपितु उन्होंने हमारे वस्त्र भी विदीर्ण कर दिये । इतने से भी उन्हें संतोष नहीं हुआ तो हमारे मुंह पर कालिख पोत दी । फिर सबने अपने जूते उतारे और हमारे सिर पर मारे । उन्हीं जूतों की माला बनाकर उन्होंने हमारे गले में डाल दी । अब आप ही बताऐं कि इसमें हमारा क्या अपराध है ? हम तो इस अपमान के कारण आत्मदाह करने जा ही रहे थे कि देवर्षि नारद ने हमें आत्मदाह करने से रोक दिया और आपके पास जाने को कहा । इसलिए हम आपके पास आए हैं । अब आप ही बताइए कि हम इस तरह और कब तक अपमानित होते रहेंगे ? ये जीवन भी कोई जीवन है क्या देवराज ? क्या इसे स्वर्ग लोक कहेंगे जहां देवों का नित नित अपमान होता है ? यदि यही स्वर्ग लोक है तो इससे बेहतर तो नर्क ही है । वहां पर इस तरह अपमानित तो नहीं होना पड़ता होगा । इस समस्या का स्थाई समाधान होना चाहिए देवराज । आज हमारे साथ यह घटना घटी है कल किसी और के साथ घट सकती है । आखिर हम लोग देव हैं कोई दास नहीं हैं" सूर्य और चंद्र देव की रुलाई फूट पड़ी । 

सभा में सन्नाटा व्याप्त हो गया । देवराज को यह आशा नहीं थी कि दैत्यों का आतंक इतना अधिक होगा । दैत्य लोग दैत्य गुरू शुक्राचार्य के द्वारा प्राप्त मृत संजीवनी विद्या के बल पर इस प्रकार देवताओं को आतंकित करेंगे ? जो कृत्य राहू और उसके अनुचरों ने किया था वह कृत्य अग्निदेव द्वारा किये गये कृत्य से किसी भी प्रकार से कमतर नहीं था । एक प्रकार से यह कृत्य देवताओं पर आक्रमण ही था । 

देवराज अमर्ष में भर गये । उन्होंने देव गुरू ब्रहस्पति को बुलवाने के लिए परिचारक भेजे । थोड़ी ही देर में ब्रहस्पति जी आ गये । उन्हें देखकर इन्द्र बहुत क्रोधित हुए और बोले 
"क्या आपको ज्ञात नहीं था गुरुदेव कि सभा का समय क्या है या आपको सभा में आने के लिए विशेष निमंत्रण की आवश्यकता है" ? 

ब्रहस्पति देव को अपनी त्रुटि का भान हुआ और उन्होंने अपनी गर्दन नीची कर ली । 

"गर्दन नीची करने से काम चलने वाला नहीं है गुरुदेव । आपके कारण ही हम देव लोग आज प्रत्येक जगह अपमानित हो रहे हैं । आप देवों के गुरू हैं और आपके रहते हुए देव सर्वत्र अपमानित हो रहे हैं । इससे आपको कोई खेद भी नहीं हो रहा है । ये क्या है गुरुदेव" ? इन्द्र ने अपना सारा क्रोध ब्रहस्पति जी पर उतार दिया । 

ब्रहस्पति देव शांत रहकर देवराज के कटु वचन सुनते रहे । गुरुदेव को चुप देखकर देवराज और भड़क गये और अत्यंत कुपित होकर बोले "हमने आपको देव गुरू चुना क्या इस बात का दण्ड दे रहे हैं आप हमें ? आज मुझे उस निर्णय पर पश्चाताप हो रहा है जिसके द्वारा आपको देव गुरू नियुक्त किया गया था । शुक्राचार्य ने कितना ताण्डव किया था उस निर्णय पर ? कह रहे थे कि शुक्राचार्य बल, बुद्धि, वीर्य, तेज सबमें आपसे श्रेष्ठ हैं इसके पश्चात भी उन्हें गुरू नहीं बनाया । इससे रुष्ट होकर ही वे दैत्यों के गुरू बने थे । काश ! मैं उन्हें देव गुरू बनाता तो आज हमारी ऐसी दुर्गति तो नहीं होती ? जो कार्य आपको करना चाहिए था वह आपने नहीं किया अपितु शुक्राचार्य जी ने किया । मृत संजीवनी विद्या के लिए कितना घोर तप किया था उन्होंने ? भगवान शंकर ने उन्हें मृत संजीवनी विद्या दे भी दी । उसी मृत संजीवनी विद्या के बल पर ये दैत्य इतना अभिमान कर रहे हैं । पर इससे आपको क्या फर्क पड़ता है ? आपको तो कोई दैत्य कुछ कहता नहीं है , बेचारे सूर्य, चंद्र और अन्य देवताओं की तो जान पर बन आई है । अब आप इस विषय पर कुछ बोलेंगे या आज मौन ही धारण किये रहेंगे" । इन्द्र के नेत्रों से चिन्गारियां छूट रही थीं । 

गुरू ब्रहस्पति जी ने परिस्थिति की भयावहता भांप ली थी । उन्होंने एक निगाह उपस्थित समस्त देवताओं, गन्धर्वों और यक्षों पर डाली । सबके सब चिन्तित नजर आ रहे थे । फिर उन्होंने देवराज इन्द्र को देखा । आज इन्द्र के नेत्रों में गुरू ब्रहस्पति के लिए कोई आदर सम्मान नहीं था अपितु वहां  अपमान ही अपमान भरा पड़ा था । ऐसी स्थिति में कुछ भी कहना अपनी दुर्गति कराने जैसा ही था । अत: वे मौन ही साधे रहे । 

गुरूदेव को मौन देखकर देवराज बोले "आपको मृत संजीवनी विद्या के लिए भगवान शंकर की उपासना करनी चाहिए थी लेकिन आपने वह नहीं की और हाथ पर हाथ धरकर आप बैठे रहे । जब शुक्राचार्य जी ने मृत संजीवनी विद्या प्राप्त कर ली तब भी आप शांत होकर बैठे रहे । मृत संजीवनी विद्या का कोई तोड़ भी आपने नहीं निकाला । अब आप ही बताऐं गुरुदेव कि यदि कल देवता और दैत्यों में युद्ध हो जाये तो देवता जीतेंगे कैसे ? शुक्राचार्य जी तो प्रत्येक दैत्य को मृत्यु के मुंह से छीन लाऐंगे लेकिन देवताओं को काल के गाल में समाने पर कौन जीवित करेगा ? देवर्षि नारद जी कह रहे थे कि समुद्र में अमृत कलश रखा है । यदि समुद्र का मंथन किया जाये तो वह अमृत कलश प्राप्त हो सकता है । यदि वह अमृत कलश प्राप्त हो जाये तो उसे पीकर समस्त देव अमर हो सकते हैं । तब मृत संजीवनी विद्या की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी । आपने क्या समुद्र मंथन के बारे में सोचा है" ? देवराज का क्रोध शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा था । 

जब बोलने का अवसर हो और कोई व्यक्ति उस समय नहीं बोले तो लोग उसे दुर्बल समझने लगते हैं । गुरू ब्रहस्पति बहुत देर से इन्द्र की बातें सुन रहे थे । अब प्रत्युत्तर देने का सही अवसर जानकर गुरू ब्रहस्पति बोले 
"देवराज, आपने मुझे देव गुरू नियुक्त किया, यह आपका निर्णय था । मैंने तो शुक्राचार्य को परीक्षा में पराजित कर यह पद प्राप्त किया है , आपने कोई विशेष अनुकंपा नहीं की थी मुझ पर । रही बात मृत संजीवनी विद्या की तो यह बात सही है कि मैं उस समय तपस्या करने के लिए उद्यत नहीं था और अब उसका कुछ उपयोग नहीं है । जहां तक बात समुद्र मंथन की है तो इसके लिए देव और दानव दोनों को ही प्रयास करने होंगे । दानवों के साथ चूंकि संबंध बेहतर नहीं हैं इसलिए अभी समुद्र मंथन संभव नहीं लग रहा है । जब दैत्य इसके लिए सहमति देंगे तभी समुद्र मंथन हो सकता है । मैंने इस संबंध में पहले ब्रह्मा जी से वार्ता की थी तब उन्होंने कहा कि श्री नारायण जी से चर्चा करो , वे ही कुछ रास्ता बताऐंगे । इसके पश्चात मैंने भगवान विष्णु से वार्ता की तो वे कहने लगे कि समुद्र मंथन के लिए पहले एक विशाल पर्वत की आवश्यकता होगी जिसे मथानी बनाया जायेगा । फिर मंथन के लिए कोई बहुत मजबूत रस्सी चाहिए । वैसी रस्सी अभी तक कहीं है नहीं । रस्सी का विकल्प ढूंढा जा रहा है । भगवान विष्णु ने यह भी कहा कि अमृत के साथ घोर हलाहल भी निकलेगा समुद्र मंथन से । उस हलाहल को कौन पीएगा, पहले यह तय कर लो । बस, इसी बिन्दु पर मंथन चल रहा है । जब यह निर्णय हो जाएगा कि विष कौन पिएगा उसी दिन समुद्र मंथन कर लिया जाएगा" । गुरू ब्रहस्पति एक सांस में ही सब कुछ बोल गए । 

ब्रहस्पति जी की बातें सुनकर देवराज का क्रोध कुछ कम हुआ । एक बार समुद्र मंथन हो जाये और सब देवता अमृत पान कर लें तो फिर इन दैत्यों को चुन चुन कर मारेंगे । देवराज मन ही मन योजना बनाने लगे थे । पर इसमें अभी वक्त लगने की संभावना है इसलिए केवल उसके भरोसे पर नहीं बैठ सकते हैं । कुछ और भी प्रयास करने होंगे हमें । ऐसा सोचकर देवराज गुरु ब्रहस्पति से बोले "आप कुछ भी करो, हमें तो मृत संजीवनी विद्या का तोड़ चाहिए । साम, दान, दण्ड, भेद किसी भी प्रकार से लाओ, आप तो मृत संजीवनी विद्या का तोड़ लेकर आ जाओ । यही मेरा हुक्म है" । देवराज ने सभा समाप्त कर दी । 

क्रमशः 

श्र हरि 
18.5.23 

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3 Comments

वानी

16-Jun-2023 07:17 PM

बहुत खूब

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shahil khan

19-May-2023 08:54 AM

Nice

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Hari Shanker Goyal "Hari"

19-May-2023 09:49 AM

🙏🙏

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